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ए दरख्त !!

कुछ अनकही सी ............!
कुछ अनकही सी ............!
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ये दरख्त जब भी तेरी छावं
की महज़ चाहत हुयी
तेरे पत्तों ने गिर कर
मेरा कोमल मन घायल किया
दोष मेरा क्या ??????
इक बार तो बता दो
माना तेरी छावं के
हकदार हैं कई
मगर क्यूँ
सजा का मुझे हकदार किया ???
ए दरख्त तुझे कई बार
सींचा है मैंने भी अपने स्नेह से
स्वार्थ था शायद या थी असीम चाहत
तूने समझने से ही इनकार किया
ए दरख्त तू यूँ ही हरा भरा रहे
तेरी छावं तेरी चाहतो पर बनी रहे
मैं मुसाफ़िर हूँ दूर से ही
तुझे देख कर नेह जल से तुझे सींचती रहूंगी
आखिर मैंने तुझे प्यार किया प्यार किया प्यार किया
$hweta

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