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ए चांद शब् भर तुझे ही सराहती रही
सुबह तलक़ चांदनी को हथेलियों में बंद करती रही
तेरी तरह इंतज़ार की घड़ियों में अरमानो को घटाती बढाती रही
तेरी रौशनी में नहाई जहां को चश्म-ए-नम नज़रों से निहारती रही
छलकते पैमाने में टूटती मोतियों में तेरे अक्स को ही निहारती रही
कभी नर्म दूब पर तेरे क़दमों के पड़े निशान को बार-हा-बार निहारती रही
कुछ अधूरे अलफ़ाज़ जो लिख गये थे तुम उसे मुकम्मल करने को हार्फ़ तलाशती रही
मेरे हिस्से की चांदनी तुझको मिले और तेरी अमावास मेरी हो ख़ुदा से फ़रियाद करती रही
अमृत-रस की चाह न हुयी कभी तेरी मोहब्बत का ज़ाम मैं ख़ुशी से पीती रही
अब ज़हर क्या देगा मुझे ये ज़ालिम ज़माना चम्-ए-नम हर हाल मुस्कुराती रही
खामोश की चादर ओढ़ शर्म-ओ-हया के आँचल में दिल के जज्बातों को छुपाती रही
बफा-ए-हर पहलू की परख में अश्कों के झरने में रोज़ एक नए बहाने को आजमाती रही
$hweta
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