कुछ अनकही सी ............!
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अन्धकार को चीरता एक दीया
जो सरहद पर आँधियों से लड़ता रहा
बर्फ के गोले खाता कहीं रेत पर सोता रहा
मन बावरा दुश्मनों की भीड़ में जीत की आस पर लड़ता रहा
मंजिल की ख़बर नही वक़्त का पहिया तेज़ चलता रहा
कंही सो गए वो कंही इंतज़ार का दीया जलता रहा
कल रात कुछ सो गए कुछ दिलों में ज़ख्म पलता रहा
दीया था आस का अमावस में भी टिमटिमाता रहा
मन था बावरा बावरे को भीड़ में ढूंढता रहा
कुछ सुफेदियों में दफ़न थे कुछ सुपुर्द-ए-ख़ाक होता रहा
दीया था या बावरा मन किस भवर में उलझता रहा
लौ थर-थाराती रही जिन्दगी और मौत का किस्सा भी चलता रहा
दोखज़ के राह पर थे खड़े कुछ ज़न्नत की ओर काफिला भी चलता रहा
हर आँगन में सरहदों पर मिटने वालो की सलामती का दीया रोशन होता रहा
अमन की चाह में ख़ामोशियों के राह पर पाकीज़गी हर क़दम संभलती रही और एक दीया जलता रहा !!! $hweta !!!
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